विधेयकों पर फैसले की समय सीमा तय होगी?
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क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए तय करनी चाहिए समय सीमा? संविधान पीठ करेगी ऐतिहासिक सुनवाई

संविधान की व्याख्या के नए मोड़ पर सुप्रीम कोर्ट: राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए 14 प्रश्नों पर होगी ऐतिहासिक सुनवाई

भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में विधेयकों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका हमेशा चर्चा का विषय रही है। अब सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ इस पर ऐतिहासिक सुनवाई करने जा रही है जिसमें यह तय होगा कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए एक निश्चित समयसीमा के दायरे में लाया जा सकता है।

5 जजों की संविधान पीठ का गठन

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अनुपस्थिति में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई की अध्यक्षता में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर को मिलाकर 5 जजों की संविधान पीठ का गठन किया गया है। यह पीठ राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 (1) के तहत भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर विस्तृत सुनवाई करेगी।

केंद्र और राज्यों को भेजा गया नोटिस

संविधान पीठ ने इस संवेदनशील मुद्दे पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है। इस सुनवाई के तहत संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 से संबंधित प्रमुख सवालों पर विचार किया जाएगा।


विवाद का मूल कारण: विधेयकों पर अनिश्चितकालीन प्रतीक्षा

तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित 10 विधेयकों के राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास महीनों तक लंबित रहने के बाद यह मुद्दा उभरा। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने अप्रैल 2025 में कहा था कि विधेयक समयसीमा में मंजूरी न मिलने पर न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है। इसके बाद सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से संविधान पीठ में विचार हेतु सवाल भेजे।


राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए 14 संवैधानिक सवाल

यह सवाल भारतीय संघीय ढांचे, कार्यपालिका और न्यायपालिका के संतुलन को गहराई से छूते हैं। इनमें प्रमुख सवाल हैं:

  1. अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के सामने विकल्प क्या हैं?

  2. क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य हैं?

  3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?

  4. अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को अदालती कार्रवाई से मुक्ति मिलने का क्या दायरा है?

  5. क्या कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है?

  6. राष्ट्रपति के निर्णयों पर भी न्यायिक समीक्षा हो सकती है?

  7. राष्ट्रपति के निर्णय की समयसीमा तय की जा सकती है?

  8. क्या राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की सलाह ले सकते हैं?

  9. विधेयक के कानून बनने से पहले उस पर विचार संवैधानिक है?

  10. अनुच्छेद 142 का दायरा क्या है?

  11. क्या राज्यपाल की सहमति के बिना विधेयक कानून बन सकता है?

  12. संवैधानिक मुद्दों पर 5 जजों की बेंच क्यों आवश्यक है?

  13. क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए कानून के विरुद्ध जा सकता है?

  14. अनुच्छेद 131 क्या अन्य हस्तक्षेप को रोकता है?


अदालती दखल और राजनीतिक प्रतिक्रिया

इस मामले को लेकर कानून विशेषज्ञों में बहस छिड़ गई है। जहां सुप्रीम कोर्ट अपने आदेशों से विधायी प्रक्रिया को द्रुत और पारदर्शी बनाना चाहता है, वहीं सरकार इसे न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका में हस्तक्षेप मानती है।

पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अनुच्छेद 142 की आलोचना करते हुए उसे ‘न्यायिक मिसाइल’ तक कह डाला था। वहीं विशेषज्ञों का मानना है कि विधायी प्रक्रियाओं में जवाबदेही सुनिश्चित करना लोकतंत्र की मजबूती का संकेत है।


अब आगे क्या?

अगस्त 2025 में इस संवैधानिक सुनवाई की अगली तारीख तय की गई है। उम्मीद की जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ एक स्पष्ट दिशा-निर्देश के साथ राज्यपालों और राष्ट्रपति की भूमिका और सीमाओं पर ऐतिहासिक फैसला सुनाएगी, जो आने वाले दशकों तक भारत की राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था की दिशा तय कर सकता है।


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