“चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेलों हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।”
भारत का स्वतंत्रता संग्राम कई वीरों और वीरांगनाओं की अद्भुत कहानियों से भरा हुआ है, लेकिन जब किसी महिला योद्धा की बात आती है, तो सबसे पहला नाम रानी लक्ष्मीबाई का ही लिया जाता है। 29 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने जो इतिहास रचा, वह आज भी भारत के कोने-कोने में गर्व से सुनाया जाता है। 18 जून को रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि (death anniversary) मनाई जाती है, जो हमें उनके अद्वितीय साहस, बलिदान और देशभक्ति की याद दिलाती है।
Early Life: मनु से रानी लक्ष्मीबाई तक का सफर
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी (Varanasi) में हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था और लोग उन्हें प्यार से मनु कहते थे। उनके पिता मोरोपंत तांबे, पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेवा में कार्यरत थे। मां भागीरथीबाई के निधन के बाद पिता मनु को साथ लेकर पेशवा के दरबार में रहने लगे, जहां चंचल और तेजस्वी मनु को सभी ‘छबीली’ कहकर पुकारते थे।
मनु ने न सिर्फ धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया, बल्कि बचपन से ही घुड़सवारी, धनुर्विध्या ,तलवारबाजी horse riding, sword fighting, और archery जैसी युद्ध कलाओं में भी निपुणता प्राप्त की। वह बचपन से ही एक warrior spirit के साथ बड़ी हुईं।
Marriage and Political Struggles: झांसी की रानी बनना और संघर्ष का आरंभ
1850 में उनका विवाह झांसी के महाराजा गंगाधर राव से हुआ और वह रानी लक्ष्मीबाई कहलाने लगीं। एक पुत्र रत्न हुआ, लेकिन वह केवल चार महीने ही जीवित रहा। पुत्र की मृत्यु ने राजा को भीतर से तोड़ दिया और 1853 में उनका भी निधन हो गया।
गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, जिसकी सूचना अंग्रेजी सरकार को भी दी गई थी। लेकिन ब्रिटिश सरकार के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने अपनी Doctrine of Lapse नीति के तहत झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने का निर्णय लिया।
अंग्रेजों की इस अन्यायपूर्ण नीति के विरोध में रानी का वह ऐतिहासिक वाक्य सामने आया —
“मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।”
यह नारा सिर्फ एक विरोध नहीं था, बल्कि एक revolutionary spirit की शुरुआत थी।
1857 की क्रांति: The First War of Independence
भारत में 1857 की क्रांति की चिंगारी मेरठ और कानपुर से भड़की, लेकिन झांसी में यह ज्वाला बनकर फूटी। रानी लक्ष्मीबाई ने तय कर लिया था कि वह अंग्रेजों से one-on-one battle करेंगी। उन्होंने अपनी सेना को संगठित किया, और युद्ध की रणनीतियां खुद तय कीं।
23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। रानी के सेनापति गुलाम गौस खां जैसे कुशल तोपचियों ने अंग्रेजों पर गोलों की बौछार कर दी। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी पीठ पर दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधकर, घोड़े पर सवार होकर सात दिनों तक वीरता से लड़ाई लड़ी।
Retreat and Gwalior: अंतिम युद्ध और बलिदान
जब स्थिति असहनीय हो गई, तो रानी ने अपने सरदारों की सलाह मानते हुए कालपी की ओर प्रस्थान किया। वहां भी उन्होंने युद्ध नहीं छोड़ा और आगे बढ़ते हुए ग्वालियर पहुंच गईं। अंग्रेज कमांडर Sir Hugh Rose लगातार उनका पीछा कर रहा था।
18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ। रानी ने पूरे साहस और रणनीति के साथ नेतृत्व किया, लेकिन युद्ध के दौरान वह गंभीर रूप से घायल हो गईं। अपने अंतिम समय में उन्होंने ग्वालियर की गंगादास की बड़ी शाला में संतों से अनुरोध किया कि
“मेरा शरीर अंग्रेजों के हाथ न लगे।”
उनकी अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए वहीं एक झोपड़ी को चिता बनाकर रानी का अंतिम संस्कार कर दिया गया।
Legacy: An Eternal Flame of Inspiration
रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान केवल एक वीरता की घटना नहीं थी, वह freedom movement का प्रतीक बन गईं। उनकी मृत्यु के बाद भी उन्होंने लाखों लोगों को प्रेरित किया। वह महिला सशक्तिकरण की आदर्श बनीं और भारत की हर बेटी के लिए एक प्रेरणा बन गईं।
उनकी कहानी सिर्फ किताबों में नहीं, बल्कि Indian national consciousness में समाई हुई है। उनका अदम्य साहस, अपराजेय संकल्प और मातृभूमि के प्रति उनका प्रेम आज भी हर भारतीय को गर्वित करता है।
🔥 Salute to the Warrior Queen Jhansi ki Rani Laxmi Bai
🚩 Rani Laxmi Bai – The flame that never died.
🚩 Her sword spoke louder than any words ever could.
🚩 Long live her legacy. Jai Hind!
वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई को उनके बलिदान दिवस पर शत शत नमन
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