अभिषेक मनु सिंघवी का बड़ा दावा: “नैरेटिव छिनते ही बीजेपी बौखला जाती है”
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) पर बड़ा हमला बोलते हुए कहा है कि पार्टी केवल नैरेटिव (वाचन-वृत्तांत) पर काबिज रहना चाहती है और जब कोई उस नैरेटिव को चुनौती देता है, तो वे बौखला जाते हैं। उन्होंने ये बात उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे के संदर्भ में कही।
“धनखड़ साहब का इस्तीफा रहस्यमय”
सिंघवी ने धनखड़ के इस्तीफे को लेकर कई सवाल खड़े किए। उन्होंने कहा:
“धनखड़ साहब संसद में न्यायपालिका के खिलाफ मुखर बयान दे रहे थे। वह कह रहे थे कि लोकसभा और राज्यसभा में अगर कोई समान प्रस्ताव आता है, तो दोनों सदनों के चेयरमैन एक संयुक्त कमिटी बनाकर मिलकर काम कर सकते हैं। लेकिन इसके कुछ ही समय बाद उनका इस्तीफा सामने आया।”
उन्होंने इसे “चुप्पी की राजनीति” करार देते हुए कहा कि न कोई औपचारिक स्पष्टीकरण दिया गया, न कोई संवैधानिक कारण।
बीजेपी का ‘नैरेटिव नियंत्रण’ एजेंडा?
अभिषेक मनु सिंघवी ने तीखे शब्दों में कहा:
“बीजेपी को सिर्फ नैरेटिव चाहिए। अगर उनसे नैरेटिव छिन जाए तो ये बौखला जाते हैं। यह पार्टी कभी यह सोच ही नहीं पाई कि लोकतंत्र में सबको साथ लेकर कैसे चला जाए।”
सिंघवी ने आरोप लगाया कि बीजेपी लगातार संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव बनाकर उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है और धनखड़ का इस्तीफा इसी ‘छवि निर्माण’ अभियान का हिस्सा है।
राज्यसभा में हुआ क्या था?
सिंघवी ने बताया कि राज्यसभा में जब न्यायपालिका से जुड़े मुद्दों पर बहस हुई, तो कानून मंत्री से सवाल पूछे गए, लेकिन संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उन्होंने कहा:
“जब पूछा गया कि न्यायपालिका की स्वायत्तता और सम्मान को लेकर सरकार की क्या राय है, तो जवाब में या तो चुप्पी थी या गोलमोल बातें।”
बीजेपी पर दोहरा रवैया अपनाने का आरोप
सिंघवी ने बीजेपी के रवैये की आलोचना करते हुए कहा:
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जब न्यायपालिका सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलती है, तो बीजेपी उसे लोकतंत्र विरोधी करार देती है।
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लेकिन सार्वजनिक मंचों पर वही बीजेपी न्यायपालिका को स्वतंत्र बताती है।
“ये दोहरा रवैया अब जनता से छुपा नहीं है। लोकतंत्र में संस्थाओं का सम्मान जरूरी है, न कि केवल उन्हें इस्तेमाल करने की मानसिकता।”
जगदीप धनखड़ के इस्तीफे ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी की टिप्पणियां इस बहस को और धार दे रही हैं कि क्या वाकई लोकतंत्र की संस्थाएं स्वतंत्र हैं या वे किसी विशेष नैरेटिव के अधीन होती जा रही हैं?
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